शुक्रवार, 28 जनवरी 2011

दो बुँदे

वो बुँदे न बरखा की थी ना
 ना शबनम  की
फिर भी गिर जाती है 
यदा कदा ,
नहीं जानते कहाँ से आ जाती है वो  नमी ,
 बना जाती है जो चेहरे  को सर्द और आँखों को सुखा , 
फिर हम जीने लगते है
 एक अधूरी ही दुनिया में जहाँ  न सपने हैं न उम्मीद की कोई किरण ,
फिर भी उसे  जीना हैं मुक़दर मेरा ..
ईश्वर  का अस्त्तिव तलाशते  तलाशते  खुद  गवा  बैठे अपना अस्तित्व , 
नहीं समझ में आती दुनिया की बाते ,
ढकोसले  ,और पाखंड ,
और वो  जीने नहीं देते  सादगी से ,

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