मंगलवार, 19 मार्च 2013

चरित्र

व्यक्ति और स्थान का चरित्र वक़्त के साथ बदलता रहता हैं , लेकिन वो अपने पुराने स्वाभाव में कभी वापस नहीं आते  ... लेकिन आत्मा का चरित्र वक़्त के साथ नहीं बदलता | जो सबन्ध आत्मा के स्तर पे कायम होते हैं वो भी जीवन भर नहीं बदलते चाहे वो किसी स्थान या व्यक्ति से हो ... और वक़्त के थपेड़ो में बिछड़े हुए जगह या व्यक्ति यादो में ही ठीक हैं क्योकि क्या पता दोबारा वहां  जाने या मिलने पर उनका व्यव्हार और आवरण पूर्णतया परिवर्तित हो गया हो ... और ऐसा अकसर होता भी हैं , की कभी आपका जिगरी शहर या दोस्त अब वैसे नहीं रहे जो कभी पहले थे , शायद परिवर्तन ही सत्य हैं । जीवन चलने का नाम हैं .. इस यात्रा में बहुत सरे पड़ाव और मंजिले आती हैं , कुछ मिल जाता हैं कुछ खो जाता हाँ लेकिन मानव मन अपने आतीत से ही सुख का आनद लेता हैं । वर्तमान के दुःख भविष्य में आनंद और अनुभव दोनों देते हैं । आज का धोखा  कल को आपका मार्गदर्शन करता हैं । और ठीक इसी तरह मनुष्य को  अपने सिद्धांतों और आदर्शों का अपनों के द्वारा ही मजाक उड़ाने पर जो दुःख होता हैं वो मृत्यु तुल्य ही होता हैं , मूर्खो की संगती और रिश्तेदारी हमेशा आपको कष्ट में ही डालती हैं ... और जब आप मूर्खो से ही घिरे हो जिनके लिए किताबे सिर्फ कुछ शब्दकोष हो और अनुभव,  शेखी तो पतन तो निश्चित ही हैं ।

बुधवार, 31 अक्तूबर 2012

विकाशशील

वर्तमान के राजनीतिक काल  में कीचड़ से कीचड़ धोने का क्रम जारी हैं , आजादी के बाद इस देश की जनता और आने वाली पीढियां क्या जन्म  से ही  इतनी बुरी थी जैसी आज के समय में हैं |  भारतीयता ,स्वालंबन , नैतिकता कहाँ चली गई हैं? एक सच बोलो आप, उसे झुटा साबित करने के लिए तमाम लोग आ जायेंगे सच क्या हैं, ये कहने वाला , सुनने वाला  और विरोध करने वाले लोग भी जानते हैं  | साधारण सी बात हैं एक भारतीय भाषाओ को ले लीजिये , किस भारतीय भाषा में आप निपुण  हो के सम्मान जनक रोजगार पा सकते हैं , आप शुद्ध  हिंदी  बोल के देखिये आपका मजाक उड़ाने वाले हजारो मिल जायेंगे | अब सब अलग दिखना चाहते हैं  बोल चाल में , पहनावे में | आप धोती कुर्ता पहन के निकलिए आपका मजाक उडाया जायेगा | भारतीय अंग्रेज बनने चला हैं सिर्फ  वेश भूषा बदल के ... विचार  बने हैं अंग्रेजो जैसे ? आप वैचारिक हैं , ईमानदार हैं, नैतिक हैं तो  १०० % आप मुर्ख हैं ......ऐसा युवा सोचता हैं आज का ... आँखे होते हुए अंधे हैं.... कान होते हुए बहरे हैं ... ये खुलेंगे कैसे सिर्फ शिक्षित होने से  नहीं ... अपना इतिहास जानने से .. आजादी के पहले का इतिहास तो मिल जाता हैं पढने को और उसके बाद का किसको फुर्सत हैं पढने का बस सुना हैं जी इसने ये किया उसने वो किया ... बस बन गए हैं पार्टियों के समर्थक .. भाई विचारधारा नाम की चीज़ ही नहीं बची हैं न पार्टियों के पास न ही लोगो के पास , और कर रहे हैं इस देश का फैसला ... देश का नहीं अपने परिवार अपने वंश का भविष्य बना रहे हैं देश का भविष्य कही जाये .. मजदुर का बेटा अब मजदुर ही बनाया जायेगा .. कर्मचारी का बेटा कर्मचारी ही बनेगा वर्कर पैदा किये जायेंगे ....साफ शब्दों में गुलाम .. और काले अंग्रेज बनेगे मालिक ... और  देश खुशहाल हो रहा हैं और होता रहेगा जी ... हम आज जिन्दा हैं कल निकल लेंगे आने वाले जाने... सच बोलने वाले जेलों  में डाले जायेंगे या फिर उनकी जुबान बंद कर दी जाएगी ये सत्ता में आने वाला कोई भी कर सकता हैं  जरुरी नहीं हैं की वो कोई खास पार्टी का हो ... क्यों हम अपना कुछ नहीं बना रहे  आने वाले सदियों में पीढियां गर्व करे की हमारे पूर्वजो ने ये विरासत छोड़ी हैं हमारे लिए , वे जो करेंगे ये ज़माना देखेगा .....हम उनके लिए क्या बना रहे हैं ....

मंगलवार, 23 अगस्त 2011

बचपन

एक दिन ऐसे ही मेरा बचपन याद आ गया,
बच्चों को खेलते देख मेरा भी दिल ललचा गया ,
दिल में आया इनके साथ मैं भी जा के उधम मचाऊँ
दौड़ -दौड़ के इन पेड़ों पे चढ़ जाऊं ..
खेलु कुदू और थक जाऊं
न हो चिंता काम की ,
खूब दिन भर धमा -चौकड़ी लगाऊं
कही से आये मेरी माँ
और प्यार से मुझे बुलाये
और जब मैं ना आऊँ , तो दो प्यार के चपत लगाये
घर पे ला के अपने हाथों से खिलाये ....
फिर मुझे गोद में ही सुलाए

याद आ गया  माँ का मुझे मारना ...
फिर गोद में ले के रोना और दुलारना ...
याद आई ..
दादा की सिखाई चौपाइयां
दादी के सुनाई कहानिया ...
पर अब न दादा  हैं न दादी हैं ..
बस यादे उनकी बाकी  हैं ..

पर अब बचपन वापस आ नहीं सकता
बीते लम्हे मैं पा नहीं सकता ..
हर शख्स में उसका बचपन जीता हैं ..
जीवन का हर लम्हा वो जीता हैं ..

पर ...

आज जो बुजुर्ग बेचारा हैं ..
कल वो भी किसी का दुलारा था ..
माँ का प्यारा और पिता की जान था
घर भर की शान था ...
कल हम भी बुजुर्ग बेचारे होंगे ..
वक्त के हाथो नकारे होंगे ?


शनिवार, 6 अगस्त 2011

कुछ भूली बिसरी यादें - 1

मैं आज भी फिल्मे देखता हूँ , मुझे पिक्चर हाल का अँधेरा अच्छा लगता हैं , पर अब ओ बाते नहीं  हैं जो पहले हुआ करती थी , उस वक़्त हमारे कस्बे में  एक ही टाकिज हुआ करता था , तीन रुपये पचीस पैसे के टिकेट में  दोस्तों के साथ  छुप छुप के फिल्मे देखने में जो मजा आता था, वो अब किसी भी सुरत-ए- हाल में नहीं आ सकता,  वो सीटियाँ बजानी और उछलना , अपने -अपने हीरोज के लिए लड़ना और अंत में दोस्तों  के हाँ  में हाँ मिलाना हाँ तेरा भी ठीक हैं |  वो फिल्मे शुरू  होने से पहले की तीन ट्रीन- ट्रीन  घंटियाँ , और फिल्म शुरु होते ही हॉल में फैलता गहरा सन्नाटा , क्या बात होती थी जी | हमने फिल्मे देखनी कब से शुरु की  इसका कुछ अंदाज़ा नहीं होता , क्यों कि मेरे फुफेरे भाई लोग थे , तीन बुआओं  के  चार लड़के, वे हमारे ही घर रहा करते थे, यानि अपने मामा के यहाँ  और घर में सिर्फ हम थे और मेरे दादा - दादी|  वे लोग मुझे ले के जाते थे अक्सर कभी कोई और कभी कोई |  इस तरह से फिल्मे देखने की आदत लगी और ऐसी  लगी की आज टी. वी. पर आने वाली हर फिल्मे देखी ही होती हैं , हाँ अपवाद स्वरूप कुछ नई हैं जिनके लायक मैं खुद को नहीं समझता | वो स्कुल का वक़्त क्या वक़्त था , पुरे हफ्ते जेब खर्च के पैसे बचा के  हर रविवार को फिल्मे देखनी और सोमवार को स्कुल में दोस्तों के साथ  कहानी बताना , और मजे की बात ये की किसी सीन को अपने हिसाब से ही परोसना | मैंने अक्सर स्कुल के वक़्त फिल्मे  या तो अकेले ही देखी या  अपने से उम्र में बड़े लोगो के साथ , और इस काम के लिए मैंने ऐसे लोग पटाये थे जिनपे कोई श़क न करे और घर में मार न पड़े , कमल के लोग होते थे वे , कभी कोई कस्बे का रिक्शे वाला , तो कोई सब्जी वाला , तो कोई ठेले वाला क्योंके  मैं होता था छोटा और एक अच्छे परिवार से तो पिक्चर हाल  में लोग मुझे  पहचान जाते थे और घर में शिकायत चली जाती थी, तो मैंने रात के शो देखने शुरु किये इनके साथ  इनके साथ किसी किस्म का कोई डर नहीं होता था , ये लोग खुद दबंग टाइप हीरो जो थे | जब हम आठवी पास कर के इंटर कालेज में गये तो तब तो हमारे पंख ही लग गए , उस वक़्त पहला  प्यार जो था वो फिल्मे ही थी , इसी  बीच  घर में टीवी का आगमन हो चूका था पर हमे मनाही थी टीवी देखने की  हम सिर्फ समाचार देख सकते थे  और कभी चित्रहार और रंगोली , टीवी के किस्से बाद में अभी फिल्मे ,  हाँ  घर में  मेरे दादा जी  के ओर से सख्त  हिदायत थी की शाम के वक़्त  रेडियो पे बीबीसी  के समाचार सारे भाई लोग सुनेगे | तो जी पढने में हम कोई डफर भी नहीं थे , अच्छे खासे विद्यार्थी थे ही,  अब अपने हिसाब से , मार्कशीट में भी यही लिखा हैं भाई |  कालेज में  तो  लगे हाथ खूब सारे दोस्त बने  कुछ खास और कुछ कामचलाऊ , फिर तो जी अब हमने बंक  मार - मार के भी फिल्मे देखनी भी शुरु की और हमारा दायरा भी बढ गया  , अब हम आस पास के नजदीकी कस्बो में भी जाने लगे , अब दोस्तों के साथ फिल्मे देखने , जेब तो उतने पैसे होते नहीं थे और अब  हमारी गुस्ताखियों पे एक्शन भी कड़ा लिया जाता घर में तो अब हम बड़े सावधानी से गायब हुआ करते , दिन में फिल्मे देख के आना  और जी रात को करनी पढाई |  लोग कहते हैं की फिल्मे बच्चो को आवारा बना देती हैं पर हम  तो नहीं बने आवारा ?  आज उस ग्रुप के जितने भी थे  मैं भी,  सारे सफल हैं  अपने अपने सफलता के मापदंडो और अपने माता -पिता के,  क्यों की हम लोग ठहरे कस्बाई सोच वाले इन्सान , इतना ऊँचा नहीं सोचा जो मिल न सके | हाँ इतना तो तय हैं,  उन फिल्मो से दुनिया को देखने और समझने का  एक नजरिया जरुर विकसित हो गया हममे  .... अच्छाई और बुराइयाँ तो हर तरफ बिखरी पड़ी हैं दोस्त अब ये हमपे निर्भर करता हैं की हम घर लाते क्या हैं .... तो फिल्म अभी बाकि हैं  मेरे दोस्त ....

(अगली बार रेडियो के किस्से )

सोमवार, 20 जून 2011

सपनीले विचार

क्या सरकारी स्कूलों  में राजनेताओ , उद्योगपतियों  ,सरकारी कर्मचारियों  के बच्चों  के भेजने से समाज और स्कूलों के व्यवस्था में परिवर्तन नहीं हो सकता , अगर हो सकता हैं तो वे क्यों नहीं भेजते ? अगर उनको वास्तव में इस देश की चिंता हैं , तो  वे सरकारी अस्पतालों में जाएँ , सरकारी दफ्तरों में खुद जाये | इसका असर भारत के प्रगति में अवश्य पड़ेगा और भ्रष्टाचार से लड़ने में सहायक  होगा |
                           आज भारत भूमि को पुनः एक पुनर्जागरण की आवश्यकता हैं , एक बार और कबीर की जरुरत आन पड़ी हैं जो समाज को वास्तविक ज्ञान और अपने अतीत और वर्तमान से सामंजस्य बैठाना बताये| छोटे परदे के बाबा लोगो के प्रवचन के अलावा जीवन और समाज की कटु सचाइयों से अवगत कराये और आम जनता  को भी  "दया धर्म को मूल हैं" को आत्मसात करना होगा  और कोई मंदिरों के कतारबद्ध लोगो में चेतना का जागरण कराये कि , कर्म -और धर्म में दिखावा छोड़ के आम जीवन में जीवों के प्रति, समाज के प्रति अपने कर्तव्य का पालन करे | 
                        आधुनिकता विचारो से जनम लेती हैं  न कि पहनावे से , इस तरह से कोई भारतीय रहन -सहन और परिधानों पे इन्हें गर्व करना सिखाये  ताकि आने वाले जेनरेशन  एक हिन्दुस्तानी होने पर गर्व कर सके और उनके पास भी अपना कुछ गर्व करने लायक अतीत हो | क्या आने वाली नस्लों को ये पढना होगा कि एक लोकतान्त्रिक देश में  कैसे रात के साये में कुछ सोये हुए लोगो पर जुल्म हुए , राजनीती शास्त्र में घोटालो के बारे शिक्षा दी जाएगी | हम आधुनिक  तो होते जा रहे हैं लेकिन हमारे मनीषी और विद्वान लोग कुछ ऐसा नया नहीं खोज पा रहे हैं जिससे वर्तमान पीढ़ी का जीवन सरल और सुगम हो और मानवता हमे याद कर,अगर ऐसा हो भी रहा हैं तो ये आम लोगो तक नहीं पहुच पा रहा  , शायद  अब आम जनता के बारे कोई नहीं सोचता | राजनेता, वैज्ञानिक , लेखक अब अपना अपना जीवन वृत्ति सँभालने में लगे हैं , देश के लिए और समाज के लिए कोई सपना नहीं हैं , अगर हैं भी तो वे लोग उसे ठीक तरीके से आम जन तक नहीं पंहुचा रहे | देश का आम आदमी आज दिग्भर्मित हैं , भविष्य कुछ साफ़ नहीं नज़र आता कि हम किस क्षेत्र में प्रगति कर रहे हैं , वैसे तो हमारे हुक्मरान बता तो रहे हैं कि हम चौमुखी विकास कर रहे हैं पर आम आदमी का विकास उनके विकास से अलग हैं | आम आदमी को अस्पताल में दवाइयां , रोज़गार के साधन , सड़के और अपराध मुक्त समाज  चाहिए न कि मोबाएल फोंस |
                 रिअलिटी शो के आडिशन के लिए उमड़ती नवजवानों के भीड़ इस बाज़ार कि तस्वीर हैं , और कम्पनियों को ये बाज़ार प्यारा हैं न कि उनका टैलेंट | और आज इन्ही बाजारू चमक दमक में भारतीय सोच और दर्शन कही दबा सा महसूस हो रहा हैं , और आज फिर से भारत को एक  कबीर , स्वामी विवेकानंद , और महात्मा गाँधी , कि जरुरत हैं | परिस्थितियां ही मानव व्यक्तित्व का निर्माण करती हैं तो क्या पता समय ऐसे ही
व्यक्तित्व कि रचना कही कर रहा हो , पर  इस वक़्त हिंदुस्तान को ऐसे शख्स कि सख्त  जरुरत हैं |

सोमवार, 13 जून 2011

कुछ अपनी - कुछ दुनिया की

कोई देवदूत भी नहीं आता ,  
दुनिया के  करोड़ों मज़लूम इंसानों तक
जो भूख -लाचारी , गरीबी ,
युद्ध और आतंक के साये में जी रहे हैं अब तक,
इनके आलावा वो भी हैं जिनकी चेतना छीन ली हैं किसी ने ,
जिन्हें दुनिया कहती  हैं पागल, और देती हैं दुत्कार ,
जब जरुरत हैं उनको प्यार की ,
इबादतगाहों से झाँकता  नहीं हैं कोई
अब इनका हाल जानने को,
 उन्हें भी हैं किसी मसीहा की तलाश औरो से ज्यादे ,
पर शायद  नहीं हैं ईश्वर ,खुदा  के पास फुर्सत ,
अरे हाँ  पहले भी कहाँ  थी फुर्सत  इनके पास,
जन्म से लेकर मृत्यु तक डराने की चीज़ रहे हैं ये ,
इनका खौफ  सिर्फ गरीबो और मज़लूमो को ही होता हैं ,
जिनके पास हैं ताकत और दौलत वो इनसे कब  डरे हैं, जो अब डरेंगे , 
फिर वो क्यों  न अपनी तिजोरियां  भरेंगे ,
और जिन्हें अपने पेट भरने को  मिलती नहीं रोटी
वो कहाँ से अर्पित करंगे सोने - चाँदी और हीरे की श्रद्धा मोटी ,
जनम से लेकर अब तक जिनका जीवन  दुनिया के असमानताओ  में गुज़र रहा हैं 
शायद मौत का ख्याल भी  उनके जेहन से उतर गया हैं ..
क्यों की लाखो की जिंदगियां अब भी मौत से बदतर है ,
पर दुनिया तो ऐसे अरबों को बनाने में ही तत्पर हैं ...

सोमवार, 4 अप्रैल 2011

मजबूरी

ज़ज्बातो को हर किसी से बाँटा  नहीं करते ,
बात दिल की हर वक़्त जुबान पे लाया नहीं करते,
हमने देखा हैं साहिल पे कश्तियों को डुबते,
दोस्ती - दोस्त की कभी आजमाया नहीं करते,
वो कहते हैं हम शख्स नहीं भरोसे के,
पर वो राज़  हमसे कोई छुपाया नहीं करते ,
 कुर्बान कर दी ज़िन्दगी हमने दोस्ती पे,
पर अक्सर वो दोस्ती निभाया नहीं करते ,
सौदा नींद  का कर दिया बिस्तर ने गैरों से ,
अब ख्वाबो में हम किसी के जाया नहीं करते....

बुधवार, 9 मार्च 2011

नियति

एक ख्वाब था मैं,
जिसे देखा उसने,
एक प्यार था मैं,
जिसे पाला था उसने
अपने सीने में,
एक गीत था मैं
जिसे सजाया था
उसने अपने होंठो पे ,
पर एक ख्वाब को
टूटना था और मैं टूट गया,
प्यार मिट जाना था,
और मैं मिट गया
गीत उतर जाना था लबों से
 और मैं  उतर गया ...

        और अब
अब मैं हूँ और उसकी यादें
उसकी हँसी और उसकी बाते
पर नहीं हैं अब वो कही
अब भी सताती हैं बाते उसकी अनकही
यही था नसीब मेरा
और मुकद्दर  मेरा
जिसे लिखा विधि ने मेरे हिस्से में

शुक्रवार, 25 फ़रवरी 2011

कुछ बातें जो यकीं दिलाती हैं कि पगला गया हूँ मैं

आज भारत आज़ाद हैं, अंग्रेज कबके चले गए , पर मानसिकता तो यही छोड़ गए , आज भी सरकारी दफ्तरों और अफसरों में वही अंग्रेजियत भरी हैं , आम आदमीं जैसे  ही सरकारी पेशे में जाता हैं वो  बड़ा अंग्रेज बन जाता हैं , वो खुद को आम से खास सझने लगता हैं और समाज से ये उम्मीद करता हैं की  समाज उससे खास व्यव्हार  करे .
जबकि समाज के उनसे काबिल और योग्य लोग  भरे हैं ,पर मौका नहीं मिलता  अब , किस्मत उनकी जो उन्हें सरकारी नौकरी मिली हैं ,
हर तरफ नारे लग रहे हैं देश के तरक्की के लिए , भ्रष्टाचार को ख़त्म करने के लिए , और ये आज़ादी  के बाद से से ही दूर किये जा रहे हैं , लेकिन ये विकास  और तरक्की सिर्फ चन्द लोगो के लिए हैं , आम  लोग , जो कल भी मजदूर थे , खेतिहर थे वो आज भी वही हाशिये पे धकेल दिए गए हैं . किसान मजदूरी करने शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं , जिनके मेहनत और पसीने से खेतो में अनाज उगता हैं और जिनके हाड तोड़ परिश्रम से बड़े - बड़े माल और इमारते बनायीं जाती हैं , उनसे ही हमारा शहरी  समाज घृणा करता हैं , रिक्शेवाले ,  दूध वाले और सब्जी वालो से देश के शहरी वर्ग का  अगर नाता  सहजीवता का आधुनिक रूप हैं , तो उसमे भी बहुराष्ट्रीय कंपनिया सेध लगा रही हैं , सब कुछ पैकेटो में आने लगा हैं , और देश के नेता और देशवासीयो को लगता हैं हम आधुनिक हो गए हैं ,  एक तो जनसँख्या की अधिकता ,और ऊपर से उनका  न तो समुचित दोहन हो रहा हैं न ही समुचित प्रबंधन  फिर भी विकास हो रहा हैं ?  चन्द लोगो के लिए , चन्द लोगो के द्वारा और चन्द हिस्सों में , ऐसे बनेगे हम विकसित देश , अपने ही संसाधनों को त्रिस्कार कर .
                              हम आज आधुनिक युग के आधुनिक लोग आधुनिक संसाधनों के उपभोगी , पर हम अपने राष्ट्रीय और क्षेत्रीय  भाषा के उपयोग में हिचकते हैं , अपने  हर पारंपरिक  संस्कारो का  मजाक उड़ाते हैं , अपने परम्पराओं  और भाषा का उपयोग करने वाले पिछड़े गिने जाते हैं , आधुनिक भारतीय ब्रांडेड कपडे डालता हैं , अंग्रेजी बोलता हैं अपने बीवी और बच्चो से अंग्रेजी में बाते करता हैं , और दिखावे के लिए मंदिर जाता हैं , अपने को श्रेष्ठ साबित करने के लिए जागरण करवाता हैं , श्रधा के लिए नहीं , सब बोलते हैं की " आई डोंट विलिव इन कास्ट सिस्टम " पर अब भी जातिवाद कायम हैं . कितने राजनीतिक पार्टियों की दुकान चल रही हैं इससे , और मौका दे रहे हैं हम आधुनिक लोग
           क्या भारत में भी वर्ग संघर्ष की नीव पड़ने लगी हैं ? ये आने वाली आधी सदी  में जातिवाद , क्षेत्रवाद और वर्गसंघर्ष  तय कर देंगे की भारतीय समाज की दशा और दिशा क्या होगी ?