वो बुँदे न बरखा की थी ना
ना शबनम की
फिर भी गिर जाती है
यदा कदा ,
नहीं जानते कहाँ से आ जाती है वो नमी ,
बना जाती है जो चेहरे को सर्द और आँखों को सुखा ,
फिर हम जीने लगते है
एक अधूरी ही दुनिया में जहाँ न सपने हैं न उम्मीद की कोई किरण ,
फिर भी उसे जीना हैं मुक़दर मेरा ..
ईश्वर का अस्त्तिव तलाशते तलाशते खुद गवा बैठे अपना अस्तित्व ,
नहीं समझ में आती दुनिया की बाते ,
ढकोसले ,और पाखंड ,
और वो जीने नहीं देते सादगी से ,
ना शबनम की
फिर भी गिर जाती है
यदा कदा ,
नहीं जानते कहाँ से आ जाती है वो नमी ,
बना जाती है जो चेहरे को सर्द और आँखों को सुखा ,
फिर हम जीने लगते है
एक अधूरी ही दुनिया में जहाँ न सपने हैं न उम्मीद की कोई किरण ,
फिर भी उसे जीना हैं मुक़दर मेरा ..
ईश्वर का अस्त्तिव तलाशते तलाशते खुद गवा बैठे अपना अस्तित्व ,
नहीं समझ में आती दुनिया की बाते ,
ढकोसले ,और पाखंड ,
और वो जीने नहीं देते सादगी से ,