मंगलवार, 23 अगस्त 2011

बचपन

एक दिन ऐसे ही मेरा बचपन याद आ गया,
बच्चों को खेलते देख मेरा भी दिल ललचा गया ,
दिल में आया इनके साथ मैं भी जा के उधम मचाऊँ
दौड़ -दौड़ के इन पेड़ों पे चढ़ जाऊं ..
खेलु कुदू और थक जाऊं
न हो चिंता काम की ,
खूब दिन भर धमा -चौकड़ी लगाऊं
कही से आये मेरी माँ
और प्यार से मुझे बुलाये
और जब मैं ना आऊँ , तो दो प्यार के चपत लगाये
घर पे ला के अपने हाथों से खिलाये ....
फिर मुझे गोद में ही सुलाए

याद आ गया  माँ का मुझे मारना ...
फिर गोद में ले के रोना और दुलारना ...
याद आई ..
दादा की सिखाई चौपाइयां
दादी के सुनाई कहानिया ...
पर अब न दादा  हैं न दादी हैं ..
बस यादे उनकी बाकी  हैं ..

पर अब बचपन वापस आ नहीं सकता
बीते लम्हे मैं पा नहीं सकता ..
हर शख्स में उसका बचपन जीता हैं ..
जीवन का हर लम्हा वो जीता हैं ..

पर ...

आज जो बुजुर्ग बेचारा हैं ..
कल वो भी किसी का दुलारा था ..
माँ का प्यारा और पिता की जान था
घर भर की शान था ...
कल हम भी बुजुर्ग बेचारे होंगे ..
वक्त के हाथो नकारे होंगे ?


शनिवार, 6 अगस्त 2011

कुछ भूली बिसरी यादें - 1

मैं आज भी फिल्मे देखता हूँ , मुझे पिक्चर हाल का अँधेरा अच्छा लगता हैं , पर अब ओ बाते नहीं  हैं जो पहले हुआ करती थी , उस वक़्त हमारे कस्बे में  एक ही टाकिज हुआ करता था , तीन रुपये पचीस पैसे के टिकेट में  दोस्तों के साथ  छुप छुप के फिल्मे देखने में जो मजा आता था, वो अब किसी भी सुरत-ए- हाल में नहीं आ सकता,  वो सीटियाँ बजानी और उछलना , अपने -अपने हीरोज के लिए लड़ना और अंत में दोस्तों  के हाँ  में हाँ मिलाना हाँ तेरा भी ठीक हैं |  वो फिल्मे शुरू  होने से पहले की तीन ट्रीन- ट्रीन  घंटियाँ , और फिल्म शुरु होते ही हॉल में फैलता गहरा सन्नाटा , क्या बात होती थी जी | हमने फिल्मे देखनी कब से शुरु की  इसका कुछ अंदाज़ा नहीं होता , क्यों कि मेरे फुफेरे भाई लोग थे , तीन बुआओं  के  चार लड़के, वे हमारे ही घर रहा करते थे, यानि अपने मामा के यहाँ  और घर में सिर्फ हम थे और मेरे दादा - दादी|  वे लोग मुझे ले के जाते थे अक्सर कभी कोई और कभी कोई |  इस तरह से फिल्मे देखने की आदत लगी और ऐसी  लगी की आज टी. वी. पर आने वाली हर फिल्मे देखी ही होती हैं , हाँ अपवाद स्वरूप कुछ नई हैं जिनके लायक मैं खुद को नहीं समझता | वो स्कुल का वक़्त क्या वक़्त था , पुरे हफ्ते जेब खर्च के पैसे बचा के  हर रविवार को फिल्मे देखनी और सोमवार को स्कुल में दोस्तों के साथ  कहानी बताना , और मजे की बात ये की किसी सीन को अपने हिसाब से ही परोसना | मैंने अक्सर स्कुल के वक़्त फिल्मे  या तो अकेले ही देखी या  अपने से उम्र में बड़े लोगो के साथ , और इस काम के लिए मैंने ऐसे लोग पटाये थे जिनपे कोई श़क न करे और घर में मार न पड़े , कमल के लोग होते थे वे , कभी कोई कस्बे का रिक्शे वाला , तो कोई सब्जी वाला , तो कोई ठेले वाला क्योंके  मैं होता था छोटा और एक अच्छे परिवार से तो पिक्चर हाल  में लोग मुझे  पहचान जाते थे और घर में शिकायत चली जाती थी, तो मैंने रात के शो देखने शुरु किये इनके साथ  इनके साथ किसी किस्म का कोई डर नहीं होता था , ये लोग खुद दबंग टाइप हीरो जो थे | जब हम आठवी पास कर के इंटर कालेज में गये तो तब तो हमारे पंख ही लग गए , उस वक़्त पहला  प्यार जो था वो फिल्मे ही थी , इसी  बीच  घर में टीवी का आगमन हो चूका था पर हमे मनाही थी टीवी देखने की  हम सिर्फ समाचार देख सकते थे  और कभी चित्रहार और रंगोली , टीवी के किस्से बाद में अभी फिल्मे ,  हाँ  घर में  मेरे दादा जी  के ओर से सख्त  हिदायत थी की शाम के वक़्त  रेडियो पे बीबीसी  के समाचार सारे भाई लोग सुनेगे | तो जी पढने में हम कोई डफर भी नहीं थे , अच्छे खासे विद्यार्थी थे ही,  अब अपने हिसाब से , मार्कशीट में भी यही लिखा हैं भाई |  कालेज में  तो  लगे हाथ खूब सारे दोस्त बने  कुछ खास और कुछ कामचलाऊ , फिर तो जी अब हमने बंक  मार - मार के भी फिल्मे देखनी भी शुरु की और हमारा दायरा भी बढ गया  , अब हम आस पास के नजदीकी कस्बो में भी जाने लगे , अब दोस्तों के साथ फिल्मे देखने , जेब तो उतने पैसे होते नहीं थे और अब  हमारी गुस्ताखियों पे एक्शन भी कड़ा लिया जाता घर में तो अब हम बड़े सावधानी से गायब हुआ करते , दिन में फिल्मे देख के आना  और जी रात को करनी पढाई |  लोग कहते हैं की फिल्मे बच्चो को आवारा बना देती हैं पर हम  तो नहीं बने आवारा ?  आज उस ग्रुप के जितने भी थे  मैं भी,  सारे सफल हैं  अपने अपने सफलता के मापदंडो और अपने माता -पिता के,  क्यों की हम लोग ठहरे कस्बाई सोच वाले इन्सान , इतना ऊँचा नहीं सोचा जो मिल न सके | हाँ इतना तो तय हैं,  उन फिल्मो से दुनिया को देखने और समझने का  एक नजरिया जरुर विकसित हो गया हममे  .... अच्छाई और बुराइयाँ तो हर तरफ बिखरी पड़ी हैं दोस्त अब ये हमपे निर्भर करता हैं की हम घर लाते क्या हैं .... तो फिल्म अभी बाकि हैं  मेरे दोस्त ....

(अगली बार रेडियो के किस्से )