गुरुवार, 7 जनवरी 2010

अपनी ज़िंदगी


पैरो तले नहीं हैं ज़मी ख्वाबो में आँसमां देखते हैं
दामन में है आसुओं का समंदर और हम गैरों की मुस्कान देखते हैं . ....
सर
पे नहीं है आशियाँ हमारे
पर दुनिया की मंजिलें और मकान देखते हैं
कब तलक देखते रहेंगे ऐसे हम दुनिया को मालिक
दुनिया में हम खुदा का निशान देखते है
अपना
चेहरा तो लगता है अब गैर सा
क्यों की आईने को हम शक की निगाह देखते है
लोग
अपने मेहबूब को पाके खुश होते है ऐसे
जैसे जन्नत की खुशिया पा लीं हो
एक हम है जो अपने मेहबूब के नफरत में भी जन्नत सा जहाँ देखते है........
उनकी
खुशियों की खातिर हर दर्द है हमे मंजूर
क्यों कि अपने आँसुओ में हम उनकी खुशियाँ तमाम देखते हैं
क्या
करे गिला शिकवा हम किसी " गैर " से
अपने
हाथों की लकीरों में जिंदगी अपनी नाकाम देखते है ..

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